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शेर भूखा तो रह सकता है, पर घास नहीं खा सकता।

परेशान हो? फिर से नींद नहीं आ रही? क्यों? अब क्या हुआ?
क्या कहा? एक बार फिर हिम्मत टूट रही है? भरोसा भी?
सारी बुरी घटनाएं मिलकर एक साथ दबा रही हैं क्या? डर लगता है कि कहीं हार ना जाओ?
अरे भाई, है ही क्या तुम्हारे पास हारने को? खेल ही रहे हो, तो बड़ा खेलो।

क्या कहा? माँ-बाप, भाई-बहन? उनका क्या होगा?
वैसे भी क्या होगा, अगर तुम कुछ नहीं करोगे या बड़ा नहीं करोगे? सब जी रहे हैं ना, जी लेंगे। कोई नहीं मरता। भूल गए क्या?
तो अभी कुछ दिनों के लिए खुद के लिए जी लो। डर तो सबको लगता है, किसको नहीं लगता? सब इंसान ही हैं।
क्या हुआ जो वो नहीं मिला अब तक, जो चाहिए था? तुमने भी तो वो नहीं किया, जो किया जाना चाहिए था।

पुरानी सफलताओं को याद करो। कभी किस्मत ने धोखा दिया है? नहीं ना? कभी ऐसा हुआ कि पूरे दिल-ओ-जान से मेहनत की और सफलता नहीं मिली? नहीं ना?

जब भी नहीं मिली, तब हर बार तुम्हे पता था कि नहीं मिलेगी। क्योंकि तुमने उस स्तर पर मेहनत ही नही की कभी।
तुमको किस्मत धोखा नहीं देती, तुम खुद देते हो खुद को, किसी न किसी बहाने।
क्या? अब क्या होगा? कुछ नहीं, सब ठीक है, नार्मल है। तुम्हारे ही साथ नहीं हो रहा ऐसा। सबके साथ होता है, हमेशा जीतने वालों के भी।
"जिंदगी में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं, जब कुछ सूझता नहीं। मीठे-कड़वे अनुभवों के बादलों से घिर जाती है जिंदगी, और फिर आस-पास अंधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता।
बस हमें इसी समय अपने डर और भटकाव पर पूरी तरह से काबू करने की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है। अपने सपनों को खुद से बांध के रखने का यही सबसे सही वक़्त होता है।
मनुष्य पहले अपने डर से जीतता है, फिर परिस्थितियों से या ज़िन्दगी से। हर सुबह से पहले रात होती है। समय का पहिया - एक बार नीचे तो फिर ऊपर।"
और तुमने ही तो लिखा था कि -
"चाहे जितनी फब्तियाँ कस लो, मुझे ना चाहने वालों,
मेरी तक़दीर को उसने* कुछ इस तरह से लिखा है।
कि गिरता हूँ, फिर गिरता हूँ, फिर गिर के जब उठता हूँ,
उफनते से भंवर में भी, पूरी मस्ती से चलता हूँ।।"

एक बात का विश्वास है, और वो ये - कि तुम शेर हो। और शेर ने कभी घास खाया है क्या? नहीं ना?
शेर भूखा तो रह सकता है, पर घास नहीं खा सकता। तुम भी मत खाना।

© Vikas Tripathi 2018

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