Skip to main content

मेरे पास दाई माँ है !

गांव का पहला दिन, और आज मैं अपनी दाई माँ से मिलने गया। हमें जनम तो माँ ने दिया है, पर दिलवाया 'दाई माँ' ने है। गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डॉक्टरों से ज्यादा जिम्मेदारी इन दाई माँ की होती है। कोई भी इनके आशीर्वाद के बिना पैदा हो जाये, मुश्किल है। इनके अनुभव के आगे MBBS की डिग्री भी फीकी पड़ जाती है।
दाई माँ अब और भी ज़्यादा बूढ़ी हो चुकी हैं, पर उनकी आंखें इतनी भी कमजोर नहीं कि अपने लाडले को ना पहचाने। दाई माँ ने बताया कि "कैसे मेरे बचने की कोई उम्मीद नहीं थी, डॉक्टर ने जवाब दे दिया था, फिर भी उन्होंने बिना चीरे के मुझे इस दुनिया का मुँह दिखाया"। "कैसे वो मुझे लेकर नींद के चलते बिस्तर से नीचे गिर गयी थी, पर फिर भी मुझे कुछ होने नहीं दिया था"। और फिर मेरे बचपन के लगभग सभी किस्से, जिनकी वो इकलौती गवाह हैं।
मेरी ज़िन्दगी के एक बहुत बड़े हिस्से में दाई माँ रही हैं। माँ बहुत लंबे वक्त तक ग्राम प्रधान थीं, उनकी अपनी जिम्मेदारियां थी, जिसकी वजह से उनकी गैर-मौजूदगी में हम चारो भाईयों और बहनों को संभालने की जिम्मेदारी दाई माँ की होती थी। हमारी उधम-टोली को जितना माँ ने झेला, उतना ही दाई माँ ने भी।

माँ ने प्रधान होने के नाते गांव के प्राथमिक विद्यालय पर दाई माँ की अनुसंशा कर 'मिड डे मील' बनाने के लिए नियुक्त करवा दिया था। पिछले कुछ सालों से दाई माँ की जिम्मेदारी हम चारो से बढ़कर पूरे गांव के बच्चों की हो गयी है। बुढ़ापे का असर तो दिखता ही है, पर दाई माँ का जलवा पूरी तरह से क़ायम है।
गांव के कुछ लोगों की नज़र ने दाई माँ की एक जाति है - दलित या हरिजन या चमार। उनकी रूढ़िवादी और जातिवादी सोच तो मैं बदल नहीं सकता, पर पूरी कोशिश करूंगा कि ये सोच मेरे अंदर और मेरे बाकी भाई बहनों के भीतर न पनपने पाए।
लोग चाहे जितना भी अपनी कुलीनता का बखान गाते रहें, पर हम ये कभी नहीं भूलेंगे कि "जब तक दाई माँ की थाली का जूठन नहीं खाया, पेट नहीं भरा"। हम उच्च कुल में पैदा हुए, सबरी की जूठन खाये, दलित ब्राम्हण हैं, और ये हमारा सबसे खूबसूरत एहसास है, जिसे हम जीवन भर एक मैडल की तरह सीने से लगाकर रखेंगे।

© Vikas Tripathi 2018

Comments

Popular posts from this blog

शेर भूखा तो रह सकता है, पर घास नहीं खा सकता।

परेशान हो? फिर से नींद नहीं आ रही? क्यों? अब क्या हुआ? क्या कहा? एक बार फिर हिम्मत टूट रही है? भरोसा भी? सारी बुरी घटनाएं मिलकर एक साथ दबा रही हैं क्या? डर लगता है कि कहीं हार ना जाओ? अरे भाई, है ही क्या तुम्हारे पास हारने को? खेल ही रहे हो, तो बड़ा खेलो। क्या कहा? माँ-बाप, भाई-बहन? उनका क्या होगा? वैसे भी क्या होगा, अगर तुम कुछ नहीं करोगे या बड़ा नहीं करोगे? सब जी रहे हैं ना, जी लेंगे। कोई नहीं मरता। भूल गए क्या? तो अभी कुछ दिनों के लिए खुद के लिए जी लो। डर तो सबको लगता है, किसको नहीं लगता? सब इंसान ही हैं। क्या हुआ जो वो नहीं मिला अब तक, जो चाहिए था? तुमने भी तो वो नहीं किया, जो किया जाना चाहिए था। पुरानी सफलताओं को याद करो। कभी किस्मत ने धोखा दिया है? नहीं ना? कभी ऐसा हुआ कि पूरे दिल-ओ-जान से मेहनत की और सफलता नहीं मिली? नहीं ना? जब भी नहीं मिली, तब हर बार तुम्हे पता था कि नहीं मिलेगी। क्योंकि तुमने उस स्तर पर मेहनत ही नही की कभी। तुमको किस्मत धोखा नहीं देती, तुम खुद देते हो खुद को, किसी न किसी बहाने। क्या? अब क्या होगा? कुछ नहीं, सब ठीक है, नार्मल है। ...

प्रेम संबंध खत्म क्यों होते हैं?

हम में से बहुत लोग प्रेम-संबंधों में होंगे। स्वाभाविक है, कुछ गलत नहीं। भावनाओं से खेलने वाली जनता को अगर किनारे करें, तो ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो अपने प्रेम-संबंध को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं। पर स्कूल की चहारदीवारी से उठकर ये प्यार कॉलेज की कैंटीन की तरफ जैसे जैसे बढ़ता है, उसी मात्रा में अपने साथी को लेकर Insecurity और Possessiveness भी बढ़ती है। हम अनजाने में ही सही पर अपने साथी पर हावी होने लगते हैं, जो कहीं न कहीं हमारे ही संब ंध में 'A nail in the coffin' की तरह काम करता है। हम नहीं चाहते कि उसकी किसी से दोस्ती हो, या वो किसी और के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल हो। हम सामने वाले की ज़िंदगी मे इतना घुस जाते हैं, कि ये भूल जाते हैं कि वो एक अलग प्राणी है और उसके अपने अधिकार हैं, जो उसे स्वेच्छा से चीज़ों और संबंधों के चुनाव का अवसर देते हैं। हमारे प्रेम की बाहुल्यता इतनी अधिक हो जाती है कि कई बार सामने वाले को कोफ्त होने लगती है। हमें ये गलत नहीं लगता क्योंकि हमे लगता है कि हम सामने वाले की अच्छाई के लिए डांट या बोल रहे हैं। कुल मिलाकर फिर एक वक्त आता है कि कुछ ठीक...