सन 2005, उम्र का 12वां पड़ाव, पूर्व माध्यमिक विद्यालय (जिसके प्रधान-अध्यापक मेरे पूजनीय दादाजी थे) का 7वीं कक्षा का छात्र.
मुझे विज्ञान से बड़ा लगाव था। वैसे नही जैसे वो मुझे पढ़ाई जाती थी, बल्कि वैसे जैसे मैं पढ़ना चाहता था। सरकारी स्कूल के प्रधानाचार्य का पोता होने का फायदा - स्कूल लाइब्रेरी की सभी किताबों को घर ले जा सकने की अनुमति. मैं एक बार में 10 किताबें लाता, पढता, अपनी डायरी में उनसे अलग अलग विज्ञान प्रयोगों की प्रक्रिया को लिखता, और हर किताब को बाइज़्ज़त यथास्थान रख देता।
सिर्फ एक चीज़ कचोटती - उन प्रयागों को खुद न कर पाना. अपने गाँव में उपलब्ध सीमित संसाधनों में पैसे से संपन्न होते हुए भी बड़ी मजबूर महसूस करता। कभी एक दिन अपने गाँव से बाहर जाकर बड़े शहर में पढ़ने की आशा रखता और सोचता कि एक दिन जब मैं भी यहाँ से शहर के स्कूल जाऊंगा तो उन सभी प्रयोगों को जी पाउँगा जो मैंने लिख रखें हैं।
उस साल गर्मी की छुट्टियों में मेरे पिता जी के दोस्त सपरिवार आये। साथ में उनका शहरी बेटा - जो लखनऊ के प्रतिष्टित City Montessori School (C.M.S.) का प्रतिभावान विद्यार्थी था, वो भी आया। अब बस, मेरे सवाल शुरू - एक के बाद एक।
पता चला कि वास्तविक विज्ञान तो उनको भी नही पढ़ाया जाता. बस वो 90 % लाता है और शाबाशी ले लेता है। स्कूल में दिखावे के लिए बड़ी सी लैबोरेटरी है, जहाँ जाके बच्चे गप्प मारते हैं बस। क्या एक्सपेरिमेंट और कौन सा एक्सपेरिमेंट?
दिल बैठ गया एकदम। अब तो लखनऊ शहर के स्कूल जाने का भी कोई फायदा नही। अब क्या करेंगे? कहाँ जायेंगे? कौन सिखायेगा? कब तक डेफिनिशन्स रटेंगें?
पिता जी से बोला रोते हुए। और पिता जी --- कहने को तो बड़े गुस्सैल मिज़ाज़, पर अगर मुझे रोते हुए देख लें तो आसमान सिर पे उठा लें। बोले, "मेरे बेटे के लिए लैबोरेटरी घर में ही बनेगी। बना लो लिस्ट - क्या क्या लगेगा?"
और ये रही तस्वीर उस लैबोरेटरी की। 12वीं कक्षा तक के प्रयोगों में इस्तेमाल होने वाली लगभग हर चीज़ मौजूद है इसमें - माइक्रोस्कोप, टेलिस्कोप, परखनली, स्टैंड, वोल्टमीटर, अमीटर, तार, बीकर, संघनन-ट्यूब, त्रिपाद, बुन्सेन बर्नर, HNO3, H2SO4, HCL, NaOH, Sodium, Potassium और लगभग हर वो केमिकल जो प्रयोगों के लिए ज़रूरी था।
एक चीज़ और की। बाजार 10 किलोमीटर दूर था, तो विज्ञान-प्रसार की मासिक पत्रिका 'विज्ञान प्रगति' का सदस्य बन गया। हर महीने वो किताब आती, और उसमें दिए लगभग सभी प्रयोग मेरी इस छोटी और घरेलु प्रयोगशाला में हो जाते। 2 साल बाद प्रौद्योगिकी मंत्री श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र जी के सौजन्य से हमारे नज़दीकी शहर के परास्नातकोत्तर महाविद्यालय में राज्य स्तरीय विज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन हुवा। और क्या हुआ? वही, जो होना था।
थ्योरी पे प्रैक्टिकल भारी पड़ गया। और उस प्रतियोगिता के सबसे छोटे, लाल बालों वाले 14 साल के बच्चे को विजेता घोषित किया गया। जब मैं स्टेज पे चढ़ गया, उसके बाद भी मेरा नाम पुकारा जा रहा था। मैंने उनसे अपनी बेहद पतली आवाज़ में कहा - "अंकल, मै ही विकास त्रिपाठी हूँ।" और सब हैरानी से तालियां बजाने लगे। मंत्री जी ने गले लगाके शाबाशी दी, और वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ए. के. टांगरी (निदेशक, रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर, लखनऊ) द्वारा पुरस्कृत हुआ।
अगले दिन लगभग हर अखबार में मेरी तस्वीर थी। वो मेरा पहला पुरस्कार था, पर विजेता मै नही था। विजेता था वो बाप जिसने अपने बेटे को हमेशा उड़ने का मौका दिया। जिसने हर आड़ी-टेढ़ी मांग पूरी की। जिसने कभी ना नही बोला। इसलिए नहीं कि वो सक्षम था, बल्कि इसलिए क्योंकि वो सही मायने में एक पिता था, और अपने सपने अपने बच्चों की आंखों से जीता था।
उस पुरस्कार और अपने पिता के विश्वास की इज़्ज़त मै आगे नही रख पाया, जिसका पछतावा शायद हमेशा रहे। देश के किसी भी IIT में प्रवेश लायक नही बन पाया। पर इसके बावजूद भी दादाजी/पिताजी का वो विश्वास कायम है, और अब की बार मैं उसे नही तोडूंगा।
आज भी समय निकालकर दिल्ली/नोएडा में कुछ बच्चों को विज्ञान पढ़ाता हूँ। उस वाले तरीके से नही जैसे मुझे पढ़ाया गया, बल्कि उस वाले तरीके से जैसे मैंने खुद पढ़ा। शायद कुछ दर्द कम हो जाये। शायद कुछ अच्छा हो जाये। शायद कुछ और बच्चे गणित और विज्ञान को अलग तरीके से पढ़ पाएं।
कब तक करूँगा, पता नही। पर जब तक CBI Academy में प्रवेश नही पा जाता, अपने पिता के विश्वास पर खरा नही उतर जाता, तब तक इस लड़ाई से भागूंगा नहीं। और तब तक इन बच्चों को पढ़ाना भी नहीं छोडूंगा। चाहे जहाँ भी रहूंगा, थ्योरी को प्रैक्टिकल से जीतने नही दूंगा। एक बार भी नहीं।
© Vikas Tripathi 2017
वाह भैया जी दिल जीत लिया अपने
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