Skip to main content

मुखर्जी नगर : Story 1

मुखर्जी नगर की दुनिया भी बड़ी अजीब है।
- आज UPSC 2017 के Preliminary Test के नतीजे आये। जैसे ही लाइब्रेरी में किसी ने आकर खबर दी, पूरी लाइब्रेरी ऐसे बाहर निकल पड़ी जैसे हमारे यहां द्वारपूजा के वक़्त दूल्हे को देखने के लिए औरते छत पे निकल जाती हैं। मैं भी कौतूहलवश बाहर निकला। सब लाइन लगाए पास वाले पार्क की तरफ, हम भी पीछे हो लिए। B.Tech वाले लौंडो ने कभी इतनी seriousness देखी नहीं होती ना, इसलिए ये माहौल बड़ा चकित करने वाला हो रहा था।
पहुचे हम भी पार्क में। कुछ लोग हाथ मे अपना अपना UPSC का प्रवेश पत्र पकड़े हुए - और कुछ लोग किसी high profile computer programmer की तरह अपना फ़ोन हाथ मे लिए UPSC की वेबसाइट को किसी हैकर की तरह खोलने की कोशिश करते हुए, गुट बना के खड़े। हमसे भी ये उत्सुकता बर्दाश्त नही हुई, सो हम भी उसी गुट के अनजान सदस्य की तरह गुट में घुस लिए।
अब बारी बारी से हैकर साहब ने सबका परिणाम घोषित करना शुरू किया। "अमृता सोनी...GS में पास, CSAT में फेल"। अब अमृता जी ऐसे पछाड़ मार के पीछे गिरी कि मुझे लगा कि कहीं इनका Cardiac Arrest तो नहीं हो गया। अभी मैं अमृता जी के सदमे को समझने की कोशिश ही कर रहा था, तब तक एक और भाई साहब की आंखों से मोती टपकने लगे। रहा न गया तो मैं गुट से बाहर हो लिया और पार्क की पगडंडियों पर टहलने लगा। जहाँ जाऊं, वही संवेदना : कोई फ़ोन पर अपने घर वालो से परिणाम बताकर रो रहा है, तो कोई सेलेक्ट होकर भी अपने दोस्त को रोता देख खुशी व्यक्त नहीं कर पा रहा।


-- --
मैने अपनी अभी तक की जिंदगी में किसी परीक्षा परिणाम को लेकर अभ्यर्थियों में इतना भावनात्मक जुड़ाव नही देखा है, खासकर इंजीनियरिंग के दौरान तो बिल्कुल भी नहीं। मैं स्तब्ध हूँ, मुँह से आवाज़ नही निकल रही। सोच में पड़ गया हूँ कि मेरा क्या होगा? आखिर मैं भी अगले साल इसी दौड़ में हिस्सा लेने वाला हूं। इसीलिए तो नोएडा और नौकरी को दांव लगाकर आया हूँ यहाँ। जवानी में इससे बड़ा रिस्क आखिर और है क्या?
डर और आशा जैसी संवेदनाओं का अजीब सा मिश्रण है ये मुखर्जी नगर। पहले सिर्फ पढ़ा था, आज देख भी लिया।
ज़िन्दगी दांव पर लगाना किसे कहते हैं अगर जानना हो, तो इंसान या तो मुखर्जी नगर से गांधी विहार तक कुछ दिन रह के देख ले।
शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि UPSC की इस दौड़ में या तो attempts ख़तम, या फिर आदमी। जय हो।
Vikas Tripathi © 2017

Comments

Popular posts from this blog

शेर भूखा तो रह सकता है, पर घास नहीं खा सकता।

परेशान हो? फिर से नींद नहीं आ रही? क्यों? अब क्या हुआ? क्या कहा? एक बार फिर हिम्मत टूट रही है? भरोसा भी? सारी बुरी घटनाएं मिलकर एक साथ दबा रही हैं क्या? डर लगता है कि कहीं हार ना जाओ? अरे भाई, है ही क्या तुम्हारे पास हारने को? खेल ही रहे हो, तो बड़ा खेलो। क्या कहा? माँ-बाप, भाई-बहन? उनका क्या होगा? वैसे भी क्या होगा, अगर तुम कुछ नहीं करोगे या बड़ा नहीं करोगे? सब जी रहे हैं ना, जी लेंगे। कोई नहीं मरता। भूल गए क्या? तो अभी कुछ दिनों के लिए खुद के लिए जी लो। डर तो सबको लगता है, किसको नहीं लगता? सब इंसान ही हैं। क्या हुआ जो वो नहीं मिला अब तक, जो चाहिए था? तुमने भी तो वो नहीं किया, जो किया जाना चाहिए था। पुरानी सफलताओं को याद करो। कभी किस्मत ने धोखा दिया है? नहीं ना? कभी ऐसा हुआ कि पूरे दिल-ओ-जान से मेहनत की और सफलता नहीं मिली? नहीं ना? जब भी नहीं मिली, तब हर बार तुम्हे पता था कि नहीं मिलेगी। क्योंकि तुमने उस स्तर पर मेहनत ही नही की कभी। तुमको किस्मत धोखा नहीं देती, तुम खुद देते हो खुद को, किसी न किसी बहाने। क्या? अब क्या होगा? कुछ नहीं, सब ठीक है, नार्मल है। ...

मेरे पास दाई माँ है !

गांव का पहला दिन, और आज मैं अपनी दाई माँ से मिलने गया। हमें जनम तो माँ ने दिया है, पर दिलवाया 'दाई माँ' ने है। गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डॉक्टरों से ज्यादा जिम्मेदारी इन दाई माँ की होती है। कोई भी इनके आशीर्वाद के बिना पैदा हो जाये, मुश्किल है। इनके अनुभव के आगे MBBS की डिग्री भी फीकी पड़ जाती है। दाई माँ अब और भी ज़्यादा बूढ़ी हो चुकी हैं, पर उनकी आंखें इतनी भी कमजोर नहीं कि अपने लाडले को ना पहचाने। दाई माँ ने बताया कि "कैसे मेरे बचने की कोई  उम्मीद नहीं थी, डॉक्टर ने जवाब दे दिया था, फिर भी उन्होंने बिना चीरे के मुझे इस दुनिया का मुँह दिखाया"। "कैसे वो मुझे लेकर नींद के चलते बिस्तर से नीचे गिर गयी थी, पर फिर भी मुझे कुछ होने नहीं दिया था"। और फिर मेरे बचपन के लगभग सभी किस्से, जिनकी वो इकलौती गवाह हैं। मेरी ज़िन्दगी के एक बहुत बड़े हिस्से में दाई माँ रही हैं। माँ बहुत लंबे वक्त तक ग्राम प्रधान थीं, उनकी अपनी जिम्मेदारियां थी, जिसकी वजह से उनकी गैर-मौजूदगी में हम चारो भाईयों और बहनों को संभालने की जिम्मेदारी दाई माँ की होती थी। हमारी उधम-टोली क...

प्रेम संबंध खत्म क्यों होते हैं?

हम में से बहुत लोग प्रेम-संबंधों में होंगे। स्वाभाविक है, कुछ गलत नहीं। भावनाओं से खेलने वाली जनता को अगर किनारे करें, तो ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो अपने प्रेम-संबंध को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं। पर स्कूल की चहारदीवारी से उठकर ये प्यार कॉलेज की कैंटीन की तरफ जैसे जैसे बढ़ता है, उसी मात्रा में अपने साथी को लेकर Insecurity और Possessiveness भी बढ़ती है। हम अनजाने में ही सही पर अपने साथी पर हावी होने लगते हैं, जो कहीं न कहीं हमारे ही संब ंध में 'A nail in the coffin' की तरह काम करता है। हम नहीं चाहते कि उसकी किसी से दोस्ती हो, या वो किसी और के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल हो। हम सामने वाले की ज़िंदगी मे इतना घुस जाते हैं, कि ये भूल जाते हैं कि वो एक अलग प्राणी है और उसके अपने अधिकार हैं, जो उसे स्वेच्छा से चीज़ों और संबंधों के चुनाव का अवसर देते हैं। हमारे प्रेम की बाहुल्यता इतनी अधिक हो जाती है कि कई बार सामने वाले को कोफ्त होने लगती है। हमें ये गलत नहीं लगता क्योंकि हमे लगता है कि हम सामने वाले की अच्छाई के लिए डांट या बोल रहे हैं। कुल मिलाकर फिर एक वक्त आता है कि कुछ ठीक...