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Showing posts from April, 2018

शेर भूखा तो रह सकता है, पर घास नहीं खा सकता।

परेशान हो? फिर से नींद नहीं आ रही? क्यों? अब क्या हुआ? क्या कहा? एक बार फिर हिम्मत टूट रही है? भरोसा भी? सारी बुरी घटनाएं मिलकर एक साथ दबा रही हैं क्या? डर लगता है कि कहीं हार ना जाओ? अरे भाई, है ही क्या तुम्हारे पास हारने को? खेल ही रहे हो, तो बड़ा खेलो। क्या कहा? माँ-बाप, भाई-बहन? उनका क्या होगा? वैसे भी क्या होगा, अगर तुम कुछ नहीं करोगे या बड़ा नहीं करोगे? सब जी रहे हैं ना, जी लेंगे। कोई नहीं मरता। भूल गए क्या? तो अभी कुछ दिनों के लिए खुद के लिए जी लो। डर तो सबको लगता है, किसको नहीं लगता? सब इंसान ही हैं। क्या हुआ जो वो नहीं मिला अब तक, जो चाहिए था? तुमने भी तो वो नहीं किया, जो किया जाना चाहिए था। पुरानी सफलताओं को याद करो। कभी किस्मत ने धोखा दिया है? नहीं ना? कभी ऐसा हुआ कि पूरे दिल-ओ-जान से मेहनत की और सफलता नहीं मिली? नहीं ना? जब भी नहीं मिली, तब हर बार तुम्हे पता था कि नहीं मिलेगी। क्योंकि तुमने उस स्तर पर मेहनत ही नही की कभी। तुमको किस्मत धोखा नहीं देती, तुम खुद देते हो खुद को, किसी न किसी बहाने। क्या? अब क्या होगा? कुछ नहीं, सब ठीक है, नार्मल है। ...

The Secret : Open Letter

And it is so simple. When the road you're trudging seems all uphill, get off the road and spend some time with nature, with people wiser than you, at sacred places. Whenever you think you're going too fast that you can't control the speed of your vehicle, what you should generally do : is to slow down your speed and stop your engine taking the side of the lane for some time. No, that doesn't mean you're quitting the fight, certainly not. When the lion takes his steps backward, he is not quitting the game but he is involved in the preparation. In the same way, when I say to stop your engine, I am only asking to cool it down. I'm asking to sharpen your axe before you move ahead. Moments you spend with nature, or with the partner you love, or with your family work as a coolant for your engine. Time spend in planning, preparation and analysis is not a wastage of time. Action without planning is a planning to failure. Those who plan have a lesser a...

मुखर्जी नगर : Story 1

मुखर्जी नगर की दुनिया भी बड़ी अजीब है। - आज UPSC 2017 के Preliminary Test के नतीजे आये। जैसे ही लाइब्रेरी में किसी ने आकर खबर दी, पूरी लाइब्रेरी ऐसे बाहर निकल पड़ी जैसे हमारे यहां द्वारपूजा के वक़्त दूल्हे को देखने के लिए औरते छत पे निकल जाती हैं। मैं भी कौतूहलवश बाहर निकला। सब लाइन लगाए पास वाले पार्क की तरफ, हम भी पीछे हो लिए। B.Tech वाले लौंडो ने कभी इतनी seriousness देखी नहीं होती ना, इसलिए ये माहौल बड़ा चकित करने वाला हो रहा था। पहुचे हम भी पार्क में। कुछ लोग हाथ मे अपना अपन ा UPSC का प्रवेश पत्र पकड़े हुए - और कुछ लोग किसी high profile computer programmer की तरह अपना फ़ोन हाथ मे लिए UPSC की वेबसाइट को किसी हैकर की तरह खोलने की कोशिश करते हुए, गुट बना के खड़े। हमसे भी ये उत्सुकता बर्दाश्त नही हुई, सो हम भी उसी गुट के अनजान सदस्य की तरह गुट में घुस लिए। अब बारी बारी से हैकर साहब ने सबका परिणाम घोषित करना शुरू किया। "अमृता सोनी...GS में पास, CSAT में फेल"। अब अमृता जी ऐसे पछाड़ मार के पीछे गिरी कि मुझे लगा कि कहीं इनका Cardiac Arrest तो नहीं हो गया। अभी मैं अमृता जी के सद...

मुखर्जी नगर : Story 2

''१ मिनट में पुलिस बुला दूंगी, अभी दिमाग ठीक हो जायेगा।'' सिविल सेवा परीक्षा २०१५ के निबंध में एक विषय था - ''मूल्यों से वंचित शिक्षा व्यक्ति को अधिक चतुर शैतान बना देती है'' (Education without values seems rather to make a man more clever devil.) इस पर टिपण्णी लिख आज का 'उत्तर लेखन अभ्यास' मैं फेसबुक पर ही कर रहा हूँ --- शाम का समय, मुखर्जी नगर की एक फोटोकॉपी शॉप, जहाँ मैं अपने २ दोस्तों  Abhishek  और Diwakar के साथ लाइन में खड़ा अपने नोट्स की वाइंडिंग करवा रहा हूँ और गपशप चल रही है। तब तक एक मोहतरमा अपने एक कंधे (जिसने उनका झोला पकड़ा हुआ था) के साथ आ धमकी। हमने अपनी पुरानी आदत के अनुसार उनको उस थोड़ी सी जगह में भी जगह दे दी। फिर एक और भाई आये, जो उसी भींड में एडजस्ट हो लिए। हमने उनको भी जगह दे दी। हम तीनो अपने में खोये हुए हैं, तब तक बिलकुल बगल से ज़ोर ज़ोर से चिल्लाती हुयी आवाज़ें आने लगी, ''टच कैसे कर दिया भाई तूने? तमीज़ नहीं है क्या बिलकुल भी? लड़के हो तो जो मर्ज़ी वो करोगे? समझ क्या रखा है?...'' हमने पलट के देखा, तो उस ...

थ्योरी को प्रैक्टिकल से जीतने नहीं दूंगा, एक बार भी नहीं।

सन 2005, उम्र का 12वां पड़ाव, पूर्व माध्यमिक विद्यालय (जिसके प्रधान-अध्यापक मेरे पूजनीय दादाजी थे) का 7वीं कक्षा का छात्र. मुझे विज्ञान से बड़ा लगाव था। वैसे नही जैसे वो मुझे पढ़ाई जाती थी, बल्कि वैसे जैसे मैं पढ़ना चाहता था। सरकारी स्कूल के प्रधानाचार्य का पोता होने का फायदा - स्कूल लाइब्रेरी की सभी किताबों को घर ले जा सकने की अनुमति. मैं एक बार में 10 किताबें लाता, पढता, अपनी डायरी में उनसे अलग अलग विज्ञान प्रयोगों की प्रक्रिया को लिखता, और हर किताब को बाइज़्ज़त यथास्थान रख देता। सिर्फ एक चीज़ कचोटती - उन प्रयागों को खुद न कर पाना. अपने गाँव में उपलब्ध सीमित संसाधनों में पैसे से संपन्न होते हुए भी बड़ी मजबूर महसूस करता। कभी एक दिन अपने गाँव से बाहर जाकर बड़े शहर में पढ़ने की आशा रखता और सोचता कि एक दिन जब मैं भी यहाँ से शहर के स्कूल जाऊंगा तो उन सभी प्रयोगों को जी पाउँगा जो मैंने लिख रखें हैं। उस साल गर्मी की छुट्टियों में मेरे पिता जी के दोस्त सपरिवार आये। साथ में उनका शहरी बेटा - जो लखनऊ के प्रतिष्टित City Montessori School (C.M.S.) का प्रतिभावान विद्यार्थी था, वो भी आया। अब बस, मेरे...

पीछे मुड़ के नहीं देखना है दोस्त !!

सफलता जल्दी मिले, ये ज़रूरी नहीं। पर सही जगह मिले, जो चाहिए वो मिले, ये ज़रूरी है। जिस तरह शेरनी अपने बच्चों को बचाने के लिए अपने कदम पीछे खींचकर झपट्टा मरती है, उसी तरह तुम भी अपने सपनों को बचाने के लिए एक कदम पीछे ले सकते हो। अगर नहीं तैयार हो, तो अध-कचरी तैयारी के साथ युद्व में उतरना समझदारी नहीं। इस रणभूमि में अभिमन्यु की तरह दुर्योधन के हाथों मरने से अच्छा है, कि अर्जुन की तरह सभी चक्रव्यूहों को तोड़ने की कला सीखकर ही लड़ो। अपने सिर से इस बोझ को उतारो, एक नई युद्धनीति बनाओ, कसम खा लो कि कभी जिंदगी में किसी को ये कहानी नहीं सुनाआगे कि कैसे तुम्हारा नहीं हुआ? बल्कि अपनी अगली पीढ़ी के लिए वो कहानी तैयार करो कि उनको ऐसा गर्व हो खुदपर, जैसा लव-कुश को अपनी माता सीता और पिता राम को देखकर होता था। डरो मत क्योंकि मरने के डर से, हर रोज़ मरने से अच्छा है मर जाना। कोई भी ऐसा बहाना ना दो कि एक क्षण के लिए भी कुंती जैसे भाव दिल-दिमाग में आयें कि "काश! मैंने उस वक़्त कर्ण को अपना लिया होता... काश! उसे मैंने मरने के लिए न छोड़ा होता ! काश..." अपने सपनों को मरने के लिए मत छोड़ो...

अरे सुनो, तुम पागल हो क्या?

रोज़ का वही नाटक। जॉब करोगे तो पढ़ने का मन करेगा, पढ़ाई करोगे तो 'जॉब छूट गयी तो फिर से ये पैकेज मिलेगा कि नहीं?' इस बात का डर सताता रहेगा। पैसा हाथ मे आते ही ऐसे उड़ाओगे जैसे अम्बानी की इकलौती औलाद हो। ऐसे जैसे कल ज़रूरत ही नहीं तुम्हे इसकी। साला एक चीज़ पे टिकते नहीं तुम, कभी सिविल सेवा ज्वाइन करने के लिए मरोगे, तो फिर 'इंजीनियर होना भी क्या बुरा है?' सोच के रुक जाओगे। किसी जगह गलत होते देख गुस्सा भी आएगा कि 'बस अभी जॉब छोड़ के CBI ही ज्वाइन कर लोगे' और फिर अपने कम्फर्ट जोन में वापस घुस जाओगे : कि 'नहीं हुआ तो? पैसा खत्म हो गया तो? फिर से शुरू करना पड़ेगा, शुरू से? पता नहीं फिर इतनी अच्छी कंपनी मिलेगी या नही? पता नही ये पैकेज मिलेगा या नहीं? पता नहीं...' गुस्सा तो इतना है कि चलते फिरते किसी को भी पीट दोगे। फिर घर आकर 'How to Live a Perfect and Peaceful Life?' पढ़ोगे। बाप को सलाह दोगे कि "आप दूसरों के पचड़े में क्यूँ पड़ते हैं? जमाने भर का ठेका ले रखा है आपने?" और वापस दिल्ली आके वही करोगे। अबे relevence है दोनों चीज़ों का कुछ? रोज़ ...

देशभक्ति क्या है, और कब है?

देशभक्ति तब है जब एक 11 साल का बच्चा एक लड़की से हो रही बदतमीज़ी का विरोध करता है और शहीद हो जाता है, तब नही जब गोरक्षा के नाम पर आप मर्दानगी दिखाने पहुच जाते हैं। (भले ही आपने कभी किसी गाय को एक बार भी चारा न खिलाया हो।) देशभक्ति तब है जब एक सैनिक हनुमंथप्पा अपने देश की रक्षा के लिए सियाचिन में जानलेवा न्यून तापमान पर अपनी आहुति दे देता है, तब नहीं जब आप भगवा पहनकर वैलेंटाइन्स डे के दिन जोड़ों को भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट करने के जुर्म में परेशा न करते हैं। (भले ही आप भी कभी प्रेम-संबंध में रहें हों, और इसका मतलब खूब जानते हों। पर सिर्फ आपके अनुभव कड़वे हो गए, तो चल दिये आप दुनिया सुधारने।) देशभक्ति तब है जब आप चिप्स खाने के बाद उसका रैपर कूड़ेदान में डालते हैं, अपने आस-पास सफाई रखते हैं और स्वच्छ भारत मे अपना सच्चा योगदान देते हैं, तब नहीं जब आप झाड़ू के साथ एक सेल्फी लेकर फेसबुक पर  # स्वच्छभारत  हैशटैग के साथ अपलोड करके कमैंट्स और लाइक्स गिनते हैं। (और असल मे किसी के टोकने पर उसी को ज्ञान दे डालते हैं कि "बस मेरे अकेले के ही करने से देश गंदा हो रहा है क्या?") द...

बहस ज़रूरी है क्या?

किसी भी प्रकार की 'बहस' मानसिक दबाव की स्थिति पैदा करती है, चाहे वो आपने अपने कामवाली बाई से की हो या अपनी लुगाई से। दोस्तों के बीच कई बार किसी पोलिटिकल पार्टी या सरकार को लेकर बहस छिड़ जाती है, और बात ज्यादातर इतनी बढ़ जाती है कि उनकेे बीच तनाव उत्पन्न हो जाता है। अरे, भाड़ में जाये वो पार्टी और भाड़ में जाये सरकार। और भाड़ में जाये हर वो चीज़ जो किसी भी रिश्ते में तनाव पैदा करे। दोस्त, दोस्ती और रिश्ते अधिक ज़रूरी हैं, ना कि बहस का जीतना। मुद्दों पर बहस करना अच्छी बात है, पर मेरे हिसाब से उससे ज्यादा अच्छी बात है 'अपना मुंह बंद रखने की छमता' विकसित करना। और सही समय आने पर उसका सही जगह इस्तेमाल करना। कुछ लोग कहते हैं कि वाद-विवाद करने से मानसिक छमता विकसित होती है। जरूर होती है, पर सिर्फ तब जब दोनों इस बात को समझते हों कि ये सिर्फ एक 'चर्चा का विषय' है ना कि हार-जीत का मुद्दा। अगर वाद-विवाद बहस की तरफ बढ़ गयी तो मानसिक छमता नहीं मानसिक दबाव बढ़ेगा, जो अंततः हमारे विकास में बाधक साबित होता है। इंसान का दिमाग एक बहुत ही रहस्मयी चीज़ है। आप जिन बातों को याद...

प्रेम संबंध खत्म क्यों होते हैं?

हम में से बहुत लोग प्रेम-संबंधों में होंगे। स्वाभाविक है, कुछ गलत नहीं। भावनाओं से खेलने वाली जनता को अगर किनारे करें, तो ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है, जो अपने प्रेम-संबंध को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं। पर स्कूल की चहारदीवारी से उठकर ये प्यार कॉलेज की कैंटीन की तरफ जैसे जैसे बढ़ता है, उसी मात्रा में अपने साथी को लेकर Insecurity और Possessiveness भी बढ़ती है। हम अनजाने में ही सही पर अपने साथी पर हावी होने लगते हैं, जो कहीं न कहीं हमारे ही संब ंध में 'A nail in the coffin' की तरह काम करता है। हम नहीं चाहते कि उसकी किसी से दोस्ती हो, या वो किसी और के साथ बहुत कम्फ़र्टेबल हो। हम सामने वाले की ज़िंदगी मे इतना घुस जाते हैं, कि ये भूल जाते हैं कि वो एक अलग प्राणी है और उसके अपने अधिकार हैं, जो उसे स्वेच्छा से चीज़ों और संबंधों के चुनाव का अवसर देते हैं। हमारे प्रेम की बाहुल्यता इतनी अधिक हो जाती है कि कई बार सामने वाले को कोफ्त होने लगती है। हमें ये गलत नहीं लगता क्योंकि हमे लगता है कि हम सामने वाले की अच्छाई के लिए डांट या बोल रहे हैं। कुल मिलाकर फिर एक वक्त आता है कि कुछ ठीक...

तो बहुत गरीब हो तुम !

अगर तुमने भी उस दलित के सामने अपने कुलीन होने का प्रपंच किया है, या तुमने भी उस बच्चे के सामने 'जिसने कल रात पानी में चीनी घोल कर उसमें रोटी डुबाकर' खाया था, के सामने अपने घर मे बनने वाली तीन तरह की सब्जियों का बखान किया है, अगर तुमने अपने कान्वेंट एडुकेटेड होने का धौंस उस सरकारी स्कूल से पढ़े लड़के पर जमाया है, जो आर्थिक लाचारियों की वजह से वहाँ जा न सका, या तुमने भी जातिसूचक, धर्मसूचक, प्रान्तसूचक (बिहारी या गंवार जैसे) शब्दबाण चलाकर किसी के हृदय को भेदा है, अगर तुमने किसी की सफलता किसी के द्वारा अर्जित धन से मापी है, चाहे उसका स्रोत कुछ भी रहा हो, या तुम उस लड़की/लड़के से मात्र उसकी खूबसूरती या धन की वजह से जुड़े हो, अगर तुमने करोड़ो होते हुए भी किसी की मेहनत की कमाई मारी है, या तुमने Gucci, Armani, Rolex पहनकर, ऑटो या सब्जी वाले बूढ़े दादा से 5 रुपये के लिए बहस की है, अगर हाथ में iPhone होते हुए, दोस्तों के बीच पैसे खर्च होने पर तुम्हारी आंतें ऐठने लगती हैं, तो मेरे मित्र, सखा, बंधु, बहुत बहुत गरीब हो तुम। "याद रखना, उस ऊपर वाले की अदालत में तुम्हारी...

मेरे पास दाई माँ है !

गांव का पहला दिन, और आज मैं अपनी दाई माँ से मिलने गया। हमें जनम तो माँ ने दिया है, पर दिलवाया 'दाई माँ' ने है। गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर डॉक्टरों से ज्यादा जिम्मेदारी इन दाई माँ की होती है। कोई भी इनके आशीर्वाद के बिना पैदा हो जाये, मुश्किल है। इनके अनुभव के आगे MBBS की डिग्री भी फीकी पड़ जाती है। दाई माँ अब और भी ज़्यादा बूढ़ी हो चुकी हैं, पर उनकी आंखें इतनी भी कमजोर नहीं कि अपने लाडले को ना पहचाने। दाई माँ ने बताया कि "कैसे मेरे बचने की कोई  उम्मीद नहीं थी, डॉक्टर ने जवाब दे दिया था, फिर भी उन्होंने बिना चीरे के मुझे इस दुनिया का मुँह दिखाया"। "कैसे वो मुझे लेकर नींद के चलते बिस्तर से नीचे गिर गयी थी, पर फिर भी मुझे कुछ होने नहीं दिया था"। और फिर मेरे बचपन के लगभग सभी किस्से, जिनकी वो इकलौती गवाह हैं। मेरी ज़िन्दगी के एक बहुत बड़े हिस्से में दाई माँ रही हैं। माँ बहुत लंबे वक्त तक ग्राम प्रधान थीं, उनकी अपनी जिम्मेदारियां थी, जिसकी वजह से उनकी गैर-मौजूदगी में हम चारो भाईयों और बहनों को संभालने की जिम्मेदारी दाई माँ की होती थी। हमारी उधम-टोली क...

प्रियतमा (गंदी बात)

प्रियतमा , ये जो तुम्हारी सेल्फियां "गलती से" मेरे इनबॉक्स में आ जाती है ना, शास्त्रों में इसे ही छल कहा गया है। बड़ी पुरानी विधा है ये, इतना भी नहीं पता तुम्हे? इंजीनियरिंग नहीं की हो का? जब 'चोपुवों' को 'हसीनाओं' के साथ दिल्ली मेट्रो में बाहों में बाहें डाले "नया वाला प्यार" करते देखता हूँ ना, यकीन मानिए मेरा भी मन करता है कि मैं भी आपके जैसी गलती से भेजी गई सभी सेल्फियों के साथ एक एक दिन आधुनिक अंदाज़ में 'गंदी बात' का सिलसिला शुरू करूं। पर क्या करें : दिल तो बच्चा है जी, अभी भी कच्चा है जी। अभी तक 12वीं वाले इश्क़ का दर्द भूला नहीं है। आपका "गलती से मिस्टेक" वाले प्यार को झेलने लायक इसके पास अभी मज़बूत "विंडोज फ़ायरवॉल और एंटीवायरस" नहीं है, ये अभी भी "पुरानी वाली XP" पर ही चल रहा है। तुम तो 'मॉ लाइफ मॉ रुल्ज़' करके निकल जाओगी, और इसको फिर से 'विविध भारती' के "दर्द भरे नग़में" सुनने पड़ेंगे। तो ऐसा है सुंदरी, फ़ोन पर बात ना करने वाला, टाइम ना देने वाला, व्हाट्सएप्प और "जो...

कोई नहीं मरता !

"मैं मर जाउंगी, पर तुमसे कभी दूर नहीं जाउंगी. मेरा विश्वास करो।"  उसकी आँखों का पानी सब बयां कर रहा था। "कोई नहीं मरता।" उसने बड़ी बेफिक्री से कहा। वो हमेशा से ऐसा नहीं था, बहुत ही स्नेह और प्रेम से भरा हुआ इंसान था। पर उसकी जिंदगी ने जो उसको सिखाया था, वो उसके जेहन से उतरता नहीं था। न जाने कितनी आंखों में झूठ देख चुका था वो, तो फिर ये कौन थी। "कभी नहीं जाउंगी, मेरी जान ले लेना चाहे अगर ऐसा हुआ तो।" उसके आंसू रुक नहीं रहे थे, गिरते जा रहे थे। पूरा काऊच गीला हो गया था, पर वो चुप होने का नाम नहीं ले रही थी। "7 बज चुके हैं यार, घर जाओ। बाद में बात करेंगे।" उसे चिंता हो रही थी क्योंकि वो जानता था कि उसे रात होने से पहले घर पहुंचना ज़रूरी था, वरना उसके घर वाले उससे सवाल पे सवाल करेंगे। उसने कैब बुलाई और उसे बैठा दिया। उसे उसकी बिल्कुल भी फिक्र नहीं थी, चाहे जिये या मरे। ऐसे वादे-कसमे वो बहुत सुन-देख चुका था। इंसानों और रिश्तों की काफी समझ हो गयी थी उसे, टीन-ऐज खत्म होने से पहले ही. पर वो सच्चाई भरी आंखें उसके ज़ेहन से नहीं उतर रहीं थी। था त...

एक प्रेम पत्र (जो शायद कभी ना पढ़ा जाये)

स्कूल से निकले हुए आज छह साल हो चुके हैं, उससे जुडी लगभग सभी चीज़े भूल चुकी हैं, सिवाय तुम्हे छोड़कर। याद आता है मुझे जब तुम अगस्त के महीने में हमारी 12वी क्लास में नयी नयी आयी थी, तुम्हारे चुलबुलेपन ने अनायास ही सबकी निगाहें तुम्हारी तरफ खिंच ली थीं। तुम थी भी तो बला की खूबसूरत, ऊपर से १६ साल वाली उम्र। मेरी क्या गलती, तुम मजबूर कर ही देती थी तुम्हे छुप-छ ुपके देखने को। हिंदी साहित्य तो पटा पड़ा है इस सोलह साल वाली मोहब्बत की कहानियों से। मैं भी तो सोलह का ही था, फिर कैसे नहीं भंवरा कुमुदनी पर मचलता?   भगवान् ने भी ज्यादा वक़्त नहीं लगाया, तुमको बोलना ही पड़ा टीचर की निगाह में सबसे अच्छे बच्चे से नोट्स के लिए : और इस तरह हमारी बात शुरू हो गयी। मैं तो हवा में उड़ने लगा था उसके बाद, कवितायेँ लिखने लगा था। याद है ना, पहली कविता तुम्हारे लिए ही तो लिखी थी मैंने। जब क्लास में सुनाई तो तुम समझ गयी थी, रोई भी थी तुम। तुम चाहकर भी मेरे प्रेम को स्वीकृति नहीं दे पा रही थी। इस समाज द्वारा बनाये हुए आडम्बर ब्राह्मण लड़के से प्यार करने की इज़ाज़त नहीं दे रहे थे तुम्हे। तुम्हे लगता था कि सवर्ण और पि...

क्योंकि तुमने B.Tech. नही किया है !!

अभी अभी एक महान आत्मा से बहस हो गई. ये महोदय कुछ बरस पहले राजधानी आ गये थे गाँव से. दसवीं पास थे, तो आकर लग गये एक तथाकथित कम्पनी मे बतौर वर्कर. पिछले १०-१५ वर्षों मे NCR ने बहुत बदलाव देखे हैं, तो इन महाशय की भी तरक्की हुई NCR के बदलते समय के साथ. अब २०-२५००० पाते हैं. कुछ पैसे दुसरे वाले रास्ते से भी जोड़ लिए हैं. उनकी नजर में वो समृद्ध हैं, जिसके पास पैसे हैं, चाहे किसी भी स्रोत से. मुझे भी कोई खास परेशानी नहीं है उनके व्यवहार से, बस मेरे लिए समृद्ध और सफल होने की परिभाषा थोड़ी अलग है उनसे. खैर, बात ये हुई कि उन्होने वो बात छेड़ दी, जो पिछले ४ बरस के इंजीनियरिंग के दौरान जब भी मैं अपने किसी परिचित से मिला, जितनी भी बार मैं पापाजी के किसी मित्र से मिलवाया गया, जब भी मेरा सामना किसी न किसी (तथाकथित) प्रबुद्ध व्यक्ति से हुआ, तो लगभग हर बार ये बात सुनने को मिली -- "अच्छा, B.Tech. कर रहे हो? आजकल तो इतने B.Tech. वाले हो गये हैं जिसकी कोई हद नही. जिसे देखो, वही B.Tech कर रहा है. तिवारी जी, इतने इंजीनियरिंग वाले सड़क पर घुम रहे हैं आकर, फिर भी इसका दाखिला करा दिया आपने? अरे १५-२००...